पलक आँसुओं को पकड़े है
हवा ग़म से महकती है
ज़मीन सूख सी गई है
ख़ुशी के अकाल से
बरखा भी अब रो-रो कर बरसती है
अभी तो भीनी सी खुशबू थी इक कली की
कल जब फूल खिलेगा तो क्या होगा
रात की अफवाह भर से साँझ ने मुँह ढक लिया
जब रात आएगी तो क्या होगा
अपनी पलकों से कहना
जकड़े रखें आँसुओं को
उनका दामन न छोड़ें
कि ये आँसू तभी गिरें अब
जब ख़ुशी की बाढ़ में मिलकर
ये मीठे हो जाएँ
(It's a poem that I must have written in the 4th semester; found it at the back of a notebook)
Tuesday, October 6, 2009
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